अजय शुक्ला
मैं टीवी से चिपका देख रहा था, महिला आरक्षण पर हंगामें के बीच राज्यसभा चौथी बार स्थगित। इसी बीच श्रीमती जी आईं और समाचार में मेरी तल्लीनता देख वाणी में विनम्र मनुहार भर बोलीं-आटा गूंथ दिया है, सब्जी तैयार है, जब खाना हो बता देना गरम-गरम रोटी सेंक दूंगी।
सामान्य तौर पर इस तरह की बातें रात में दो बजे के बाद, जब आफिस से आता हूं, तब सुनने को मिलती हैं, उनींदी आंखों और जम्हाई भरे मुंह से लड़खड़ाते निकलते शब्दों में। मैं कई बार कहता कि शाम को ही बनाकर रख दिया करो, मैं रात में लौटूंगा तो खा लूंगा। पर उनका जवाब होता टिफिन ले जाने लगो तो ये नौबत ही न आए। न वो मेरी सुनतीं, न मैं टिफिन ले जाने की उनकी नसीहत। बात यहीं खत्म हो जाती। वह रात दो-तीन बजे ताजी रोटी सेंकती ही हैं। मैं देर सुबह उठता हूं, तब तक घर में श्रीमती जी के सारे दैनिक काम यानी-बिट्टू के लिए नाश्ता बनाना, टिफिन तैयार करना और उसे स्कूल छोड़कर आना। इसके बाद घर की समग्र साफ-सफाई, चौका-बासन का शेष काम। तब तक मैं भी सोकर उठ जाता हूं और ब्रश करने के बाद एक कप चाय के साथ अखबारों का बंडल उलटना-पलटना शुरू हो जाता है। इस समय तक दोपहर घनी होने लगती है। श्रीमती जी पहले तो पूछती थीं लेकिन अब जान गई हैं, इनका लंच देर से होगा। सो, अपना परोस-खा लेती हैं। साप्ताहिक अवकाश के दिन ही सहभोज संभव हो पाता है, अगर सबकुछ नियोजित रहे, तो। कभी-कभी नियोजन बिगड़ता है तो मुंह-फुलव्वल होती है, मान-मनुहार चलता है, कभी-कभी नहीं भी चलता है।
इस लिहाज से आज ( अंतरराष्टीय महिला दिवस-आठ मार्च,2010) दिन में रोज रात वाला आग्रह सुन चौंका। पूछा 'क्यों, अभी तक तुमने भी खाना नहीं खाया क्या ?'
श्रीमती जी ने कल शाम बताया था कि सुबह शीतलाष्टमी की पूजा होगी। मैंने सोचा-व्रत भी हो शायद ! इसीलिए पुष्टि के लिए पूछ लिया।
बोलीं, 'सुबह पूजा कर बसेउढ़ा खा लिया। आपके लिए रोटी सेंक देती हूं।'
बसेउढ़ा यानी वह बासी भोजन जो शीतला माता की पूजा-प्रसाद के लिए एक दिन पहले ही तैयार कर लिया जाता है। मुझे श्रीमती जी ने ही बताया कि शीतला माता को शीतल चीजें पसंद हैं इसलिए गरम (ताजा) भोजन का प्रसाद अर्पित नहीं किया जाता। अब प्रसाद है तो ग्रहण्ा भी करेंगे, फेंकेंगे थोड़े न।
ये बसेउढ़ा तो प्रसाद है। पर मैं सोच रहा हूं- प्रसाद, परम्परा, प्रतीक कैसे बनते हैं। सोचते-सोचते बचपन की कुछ स्मृतियों में चला गया। बासी खाने से मैं शुरू से ही मुंह बिचकाता रहा पर अम्मा का रोज नाश्ता बासी खाने से ही होता था। गांव में मेरे घर के पिछवाड़े जो दलितों की बस्ती ( गांव भर में उसे चमरही कहा जाता था) है उसमें पहला मकान हमारे बंटाईदार (ठेके पर खेती करने वाले मजदूर) का था। वहां से रोज सुबह जो आवाजें छनकर हमारे कानों तक पहुंचतीं उनमें एक 'बासी' पुराण भी था। दरअसल, इस तबके में रोज सुबह का नाश्ता या ब्रेकफास्ट बासी भोजन का ही होता है। इसलिए सुबह खेत पर जाने से पहले स्त्री-पुरुष, बच्चे सब बासी खाकर ही जाते। खाना दिन में एक ही वक्त बनता। अक्सर छुटकी चाची (बंटाईदार की पत्नी) घर आतीं, अम्मा कुछ खाने को देतीं तो बतातीं-'दीदी पूरा हफ्ता हुई गवा, आज ताजी रोटी खाए का मिली है।'
अम्मा खुद को भाग्यशाली मानतीं कि उन्हें तो रोजाना चार में दो ही रोटी बासी खानी होतीं। पर इन परिवारों में मेहनत-मजूरी बराबरी पर करने वाली महिलाएं भी शाम को पति-बच्चों के लिए भोजन भले ताजा बना लें पर बासी बचा है (जो रोज बचता भी था) तो शाम को भी उसका अंतिम संस्कार इन्हीं महिलाओं के पेट में ही होगा। गांवों में स्थिति अब पहले से कुछ सुधरी है, मगर पूरी तरह नहीं। अम्मा भी अब बासी तभी खाती हैं जब जरूरत से काफी ज्यादा बच जाए। शहर में सुविधा हो गई-एक दो रोटी बच ही जाये तो गाय माता को खिलाकर पुण्य कमा लो या गली के कुत्तों के आगे डालकर भैरव बाबा को प्रसन्न कर लो।...पर पूरी तस्वीर अब भी कहां बदली है और कितने घरों में बदली है ? जहां काफी कुछ बदल गई है, वहां भी बसेउढ़ा का प्रसाद तो है ही। शीतला माता को बासी भोजन का प्रसाद भावना और आस्था से जुड़ा है, सो उन्हें अर्पित करो पर क्यों नहीं यह बसेउढ़ा का प्रसाद पुरुष भी बंटाकर खाते ? (हालांकि निजी तौर पर मेरा मानना है कि शीतला माता को भी यदि बासी भोजन न मिले तो वे नाराज न होंगी-भावना रखने के लिए शीतल चीजें ही तैयार कर ली जाएं जैसे फल आदि - लेकिन माता हैं इसलिए शायद उन्ाके हिस्से भी किसी पुरुष विद्वान ने बासी ही लिख दिया होगा। मैंने किसी पुरुष देवता को बासी भोजन का प्रसाद अर्पित करते अब तक तो नहीं सुना )
यह सोचते-सोचते मैं थकने लगा था । सो, आवाज लगाई, ताजी रोटी सेंकवाई, खाई और ... फिर जाने क्या हुई कि अकस्मात् होंठ हिले, स्वत: शब्द फूटे, 'आज से टिफिन भी इसी समय तैयार कर दिया करो।'
श्रीमती जी को अकस्मात् भरोसा नहीं हुआ। उन्होंने दोबारा पुष्टि के लिए विस्मय से पूछा- 'क्या कहा, टिफिन तैयार कर दूं ?'
इस बार मैंने संकेत में सिर्फ सिर हिलाया और वह खुशी-खुशी किचेन में फिर व्यस्त हो गईं। कुछ इतनी तेजी में कि मेरा इरादा बदलने से पहले टिफिन तैयार हो जाए।
जय हो शीतला मइया की! महिला दिवस जिन्दाबाद !
सोमवार, 8 मार्च 2010
शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010
मसक गई अंगिया, सरक गई सारी
अजय शुक्ला
फागुन भर फगुनाहट हवा के साथ-साथ फरफराती है। और, होली के दिन सूरज की लाली में भी अलग ही सुरूर होता है। कोई भंग पिये न पिये, इक सलोनी सी सिहरन और नशा सा हर शय पर सवार रहता है …फागुनी बयार का नशा। और अगर कहीं थोड़ी सी भंग पी ली तो कहना ही क्या…
बड़की भौजी ने शरारत से आंखें नचाईं, ‘देवर जी अबकै कच्ची अमियां पे फिसले हैं’… देवर जी कब चूकते, बोले-‘भौजी पहले रसभरी चख लें…खट्टे के साथ मीठे का रिवाज है।’
उधर, छुटकी भौजी वय:संधि की दहलीज पर खड़ी ननद को छेड़ रही हैं-‘क्यूं री! सूपनखा, गुठली पे गूदा चढ़ गइल औ इहां बौरौ नाही फरा ?’ कली सी सकुची ननद जी धत्त…! कहकर लजाती भागीं…बाहर बाबा खखारे…भीतर चुप्पी …फिर ठट्ठा। बाबा बाहर से ही बुदबुदाए, पर थोड़ा जोर से, बड़की अबकै तोहरी शामत … सुना, परसाल होली पे छुटकी बड़कऊ का लंगूर बना दिहे रहै … बाबा की शह पर छुटकी चहकी …अबकै बाबा के दाढ़ी रंगूंगी’…
दरअसल ये बोली-ठिठोली होली की आमद की चुगली है-
अगर आज भी बोली-ठोली न होगी
तो होली ठिकाने की होली न होगी
बड़ी गालियां देगा फागुन का मौसम
अगर आज ठट्ठा ठिठोली न होगी
देवर-भावज, भावज-ननद, जीजा-साली, बुआ-भतीजी, साली-सलहज, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका और साथ में जेठ, ससुर भी। सबके तन-मन में फगुनाहट का सारा रा रा रा घुल गया है। ऋतुओं का राजा, कामदेव का सहायक, बसंत पहले ही ‘फागुन में औगुन’ का रस घोल चुका है। फिकरे, फब्तियां बेइख्तियार फिसल रही हैं। मन पर जोर नहीं, वह बरजोरी पर उतारू है। फागुन में कोई किसी को न रोके, कोई किसी को न टोके। हम शहरी हों या गंवई-हर रोज, हर माह मर्यादाओं, संस्कारों, नियमों, विधानों, वर्जनाओं में जकड़े हैं। लेकिन यह वसंत ऋतु, यह फागुन का महीना, यह पर्व है वर्जनाओं से मुक्ति का, विकारों के स्खलन का, नव सृजन का। आज कोई भी रोके-रुकेगा नहीं। देखो, वह नव सिन्दूरी रतनार अपने बलम जी से कैसे भिड़ी है, जिद पर अड़ी है-
सजन चाहे झगड़ा करो…
लहुरी ननदिया के मुख पे मलूंगी
देवरा से खेलूंगी जरूर
सजन चाहे झगड़ा करो…
होरी पे कोई हार नहीं मानता। सो, तैयारियां अभी से चल रही हैं-होरी से कोई रार नहीं मानता। सो, बावरियां भी मचल रही हैं। यह प्रेम पगा पर्व है। कान्हा बने प्रेमी और राधा बनी प्रेयसी एक दूसरे को रंगने की तैयारी में हैं। बड़ी मुश्किल है। प्रेमी जुगत भिड़ा रहे हैं कि अपनी राधा को कौन रंग रंगूं जो पक्का चढ़े। विचार हो रहा है-टेसू रंग, गदराई देह पर पहले ही चढ़ा है। गुलाल मल दूं पर गुदारे गाल खुद ही गुलाल है। गाढ़ा लाल रंग चढ़ेगा पर अधरों के आगे फीका रहेगा। श्याम रंग में रंग दूं लेकिन कजरारे नैनों के आगे यह झूठा पड़ेगा। फिर क्या करूं ! जब कुछ न सूझा तो शरारत सूझी और फिर वही हुआ जिसके लिए फागुन में औगुन कुख्यात है।
लेत न छिन विश्राम अधर दोउ,पियत अधर रस रंग
चूम चूम मुख करि गुलाल सौं, केसर मींजत अंग
अब राधा रानी किससे शिकायत करें किससे कान्हा की ढिठाई बताएं श्याम ने तो लूट लिया। कौन सुनेगा। फागुन में तो सभी बौराए हैं। जो हुआ पहले से पता था। होली अधीरता का पर्व है। यहां धीरता बेइमानी घोषित है। किस-किस की कहें। होली की हरारत से सभी हलकान हैं। मादक तरंग में घिरे हैं। नई-नई शादी हुई है तो समझो होली में एक और रंग घुला। साली-सलहजों संग होली। जीजा-साढ़ू संग रार-तकरार। साली-सलहजों संग तो रिश्ता ही मनो-विनोद का है। पत्नी की पहली होली मायके में और सजन जी खिंचे चले आएंगे। पत्नी से पहले साली की पाती मिलती है, ‘जीजा जी, होली पे न आए तो हरजाना लूंगी।’ हरजाना देने में हर्ज नहीं पर ससुराल नाम में ही मादकता है। साली में सुरूर है। स (सुरा) ल कहो या ससु (राल)। जीजा जी टपकने को तैयार हैं और गुटकने को भी। होरी में हारे तो भी जीत। होली रास का पर्व है-उल्लास का, हास का-परिहास का, राग का-रंग का और रंगों के रूप अनेक हैं। होली के रंग रिश्तों में ही नहीं, प्रकृति में भी घुले हैं। होली के विविध रंग, विविध रूप प्रकृति से धरा तक, धरा के विभिन्न अंचलों में, विभिन्न भागों में, विभिन्न बोलियों में अलग-अलग बिखरे हैं। एक रंग है तो सिर्फ इसके नैसर्गिक उल्लास में, संदेश में।
उत्तर प्रदेश को ही लें। यहां विभिन्न अंचलों में होली अलग-अलग रंगों में पगी है। अवध में होली मर्यादित है। यह राम की भूमि है। राम यूं तो मानव मात्र के नायक हैं, जननायक हैं पर अवध की बात और है, ‘राजा राम अवध रजधानी’ यह रिश्ता भी है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं इसलिए उनकी रजधानी की परम्पराएं भी मर्यादित हैं। अवध के फाग में मस्ती है पर मर्यादा भी है। अवध में होली का केन्द्र है लखनऊ। लखनऊ ने नवाबियत का दौर भी देखा है, इसने भी होली के रंगों में इजाफा किया। जाने-आलम रंगीले पिया नवाब वाजिद अली शाह की होली बहुत गुजरे जमाने की बात नहीं। हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकारों और उर्दू अदीबों की बस्ती चौक की होली में अलग ही मस्ती है। साहित्यकार अमृत लाल नागर की भंग की तरंग में डूबी होली की परम्परा रवायती जोशो-खरोश के साथ आज भी जारी है। इस होली की खासियत यह है कि होलिका दहन के रोज सवेरे से ही भांग की ठंडाई घुटने लगती है। केसर, मुनक्का, चिरौंजी की ठंडाई। अगले रोज कोनेश्वर मंदिर के स्थान से होली का जुलूस निकलता है जो कमला नेहरू मार्ग, अकबरी गेट होते हुए चौक चौराहे पर समाप्त होता है। यह मुस्लिम बहुल बस्ती है। खासियत यह है कि जुलूस को जगह-जगह रोककर मुस्लिम तबके के लोग भी हुरिहारों का शिद्दत से एहतिराम करते हैं। सारे तबके, सारे फिरके रंगों में रंगे जाते हैं। जाने आलम के समय यहां रक्काशाओं की महफिलें भी सजती थीं। यह महफिलें अब कवि सम्मेलनों और मुशायरों की महफिलों में तब्दील हो गई हैं। लखनऊ से लगे कानपुर में रंगोत्सव आठ दिन चलता है।
पूरब में होली की हलचल अलग सी है। यहां होली क्या हुड़दंग है। पुरबिया होली का केन्द्र है बनारस। और बनारसी होली का जमघट गंगातट पर अस्सी घाट पर लगता है। होली को जिसने भी ‘हुड़दंग’ कहा होगा, बनारसी होली को देखकर ही कहा होगा। होली के दिन अस्सी घाट पर होने वाला कवि सम्मेलन यहां का मुख्य आकर्षण है। बनारस (काशी) पंडितों-पण्डों की नगरी है। यहां काव्य के माध्यम से गीतों के संग गालियां दागने की पुरानी परंपरा है। पर यह परंपरा अब गालियों तक ही सीमित होती जा रही है-ऐसा आरोप है। साथ ही यह भी सचाई है कि इस परंपरा को लोगों ने हुड़दंगी होली के एक पहलू के रूप में स्वीकार कर लिया है। तभी तो इस आयोजन में रैली बराबर श्रोता स्वत:स्फूर्त खिंचे चले आते हैं। हां, पर इतनी एहतियात बरतनी ही पड़ेगी कि ‘सभ्य-सुसंस्कृत’ यहां न पहुंचें। यह कवि सम्मेलन गाली-गुफ्तारी और यहां तक कि एक दूसरे की महतारी को भी समर्पित रहता है। सियासी तंज और दिली रंज इस कवि सम्मेलन में फूटते हैं। अब आपको ले चलते हैं ब्रज की होली में। होली की इस टोली में जो शामिल हो ले, समझो तर गया। ब्रज की होली ऐसी-वैसी होली नहीं। ब्रज को होली पे और होली को ब्रज पे नाज है। दोनों का रिश्ता पर्याय का है, एक दूसरे के पूरक का है। कहा जाता है- ब्रज ते शोभा फाग की, ब्रज की शोभा फाग
एक किस्सा सुनो-
एक बार एक ब्रजवासी ने कान्हा से पूछ लिया, ‘सुना है आपके बैकुण्ठ में सब कुछ है?’
‘हां, है तो!’
‘तो वहां होली भी खूब होती होगी?’
कान्हा इस सवाल पर अचकचा गए। सोचने लगे, बैकुण्ठ में होली कहां ! कान्हा को दुविधा में देख ब्रजवासी ने ताना कसा-
स्वर्ग बैकुण्ठ में होरी जो नांहि तो कोरी कहां लै करै ठकुराई
यह उक्ति पूरे ब्रज में प्रसिद्ध है। होली का ब्रज से रिश्ता कान्हा ने जोड़ा। ब्रज में होली का पर्व प्रेम में रंगा, प्रीति में पगा है। यहां होली नायक-नायिका, प्रेमी-प्रेयसी की मधुर ठिठोली है। नायक हैं कान्हा और नायिका हैं राधा। कान्हां संग ग्वाल और राधा संग गोपियां। सब होली की ठिठोली को आतुर, होली ब्रज की सर्वप्रमुख पहचान है और इसीलिए ब्रज की होली विश्व प्रसिद्ध है। कान्हां बैकुण्ठ से पृथ्वी को प्रेम और भक्ति के रस-रंग में भिगोने आए थे। उन्होंने ज्ञान पर प्रीति को प्राथमिकता दी। इसलिए ब्रज की होली में अध्यात्म के स्वर सर्वाधिक मुखरित हैं। यहां होली सिर्फ पर्व नहीं, अनुष्ठान भी है। ब्रज की होली में कोमलता है, माधुर्य है और उग्रता भी-वैसे ही जैसे प्रेम में। ब्रज के रास और रसिया जग-प्रसिद्ध हैं। कृष्ण गोपिकाओं के साथ रास रचाते थे। कान्हा और राधारानी में एक-दूसरे को होली में प्रीति के रंगों में सराबोर करने की होड़ रहती थी, जिसे यहां के रसिया फाग गीतों में याद करते हैं-
नंद कुंवर खेलत राधा संग जमुना-पुलिन सरस रंग होरी
हाथन लिए कनक पिचकारी छरके ब्रज की नवल किशोरी
राधारानी कान्हां को छेड़ती हैं, घेरती हैं, कभी लिपटती हैं, कभी खुद को छुटाती हैं और कभी भर पिचकारी कान्हां को भिगोती हैं। पर कान्हां का, नंद के कुंवर का, गिरिधारी का अंदाज ही निराला है। राधा को जब इसका अहसास होता है तो सखियों से शिकायत करती हैं-
चला के मुझपे रसीली नजर से पिचकारी
लगे जो छूने मेरा अंग-अंग गिरिधारी
मसक गई मोरी अंगिया सरक गई सारी
ब्रज की होली में अगर बरसाने की लठमार होली की चर्चा न हो तो जिक्र अधूरा रह जाता है। लठमार होली नंदकुंवर कान्हा के नंद गांव और वृषभानुसुता राधा के गांव बरसाने के बीच के रिश्ते की मधुर मार का प्रतीक है। यहां प्रेम की अतिरेकता और उग्रता है। पांच हजार साल से भी अधिक वर्षों से चली आ रही परंपरा के निर्वहन में आज भी कहीं सुस्ती नहीं। बरसाने में लठमार होली का आयोजन फागुन की शुक्लाष्टमी के राज होता है। आयोजन के एक दिन पूर्व नंदगांव से एक पुरोहित बरसाने की गोपियों को कान्हा की ओर से होली खेलने का निमंत्रण देने पहुंचता है। अगले रोज ग्वालों की टोली संग कान्हा होली खेलने बरसाने पहुंचते हैं। बरसाने के निकट पीली पोखर पे इनका स्वागत होता है। फिर ब्रह्मगिरि पर्वत के शिखर पर स्थित मंदिर पहुंचते हैं। वहां से हुरिहार रसिया गाते ‘रंगीली गली’ से गुजरते हैं। टेर गूंजती है- रसिया आयौ तेरे द्वार, खबर दीजौ उधर, बरसाने की गोपियां हुरिहारों की खबर लेना शुरू करती हैं। नंदगांव के हुरिहारों पर बरसाने की घूंघट में सजी गोपिकाएं लट्ठ बरसाती हैं। हुरिहार इन्हें अपनी बलिष्ठ भुजाओं, कांधों और जांघों पर झेलते हैं, पर पीठ दिखाने को तैयार नहीं होते। ग्रंथों-गाथाओं में वर्णन है, बरसाने की गोपियों की लठमार होली देखने आज भी स्वयं बैकुण्ठपति और देवतागण आते हैं-
ऐसे रस बरस्यो बरसाने, जो बैकुण्ठऊ में नांहि
सुर तेतीसन की मति बौरी, तजि के चले सरग की पौरी
देवों की तो नहीं पता पर बरसाने की यह अनूठी होली देखने के लिए देश-विदेश से सैलानी आज भी यहां पहुंचते हैं। बरसाने ही नहीं नंदगांव, वृंदावन, रावल, गोवर्धन, बल्देव, जाव, बठैन और महावन में भी पर्यटक पहुंचते हैं।
…बखान कहां तक करें। होली के रंग, सबके अपने-अपने हैं। होली के रोज हर कोई एक-दूसरे को अपने रंग में रंगना चाहता है। आप भी चाहते होंगे। तो तय कर लें निशाना और उठा लें पिचकारी। जमाने के रंज को रंग में भिगोकर अपनी-अपनी टोली में हो लें, वरना हाथ मलते रह जाएंगे और कहेंगे-
गयौ मस्त महीना फागुन कौ अब जीवै सो खेलै होरी-फाग…
फागुन भर फगुनाहट हवा के साथ-साथ फरफराती है। और, होली के दिन सूरज की लाली में भी अलग ही सुरूर होता है। कोई भंग पिये न पिये, इक सलोनी सी सिहरन और नशा सा हर शय पर सवार रहता है …फागुनी बयार का नशा। और अगर कहीं थोड़ी सी भंग पी ली तो कहना ही क्या…
बड़की भौजी ने शरारत से आंखें नचाईं, ‘देवर जी अबकै कच्ची अमियां पे फिसले हैं’… देवर जी कब चूकते, बोले-‘भौजी पहले रसभरी चख लें…खट्टे के साथ मीठे का रिवाज है।’
उधर, छुटकी भौजी वय:संधि की दहलीज पर खड़ी ननद को छेड़ रही हैं-‘क्यूं री! सूपनखा, गुठली पे गूदा चढ़ गइल औ इहां बौरौ नाही फरा ?’ कली सी सकुची ननद जी धत्त…! कहकर लजाती भागीं…बाहर बाबा खखारे…भीतर चुप्पी …फिर ठट्ठा। बाबा बाहर से ही बुदबुदाए, पर थोड़ा जोर से, बड़की अबकै तोहरी शामत … सुना, परसाल होली पे छुटकी बड़कऊ का लंगूर बना दिहे रहै … बाबा की शह पर छुटकी चहकी …अबकै बाबा के दाढ़ी रंगूंगी’…
दरअसल ये बोली-ठिठोली होली की आमद की चुगली है-
अगर आज भी बोली-ठोली न होगी
तो होली ठिकाने की होली न होगी
बड़ी गालियां देगा फागुन का मौसम
अगर आज ठट्ठा ठिठोली न होगी
देवर-भावज, भावज-ननद, जीजा-साली, बुआ-भतीजी, साली-सलहज, पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका और साथ में जेठ, ससुर भी। सबके तन-मन में फगुनाहट का सारा रा रा रा घुल गया है। ऋतुओं का राजा, कामदेव का सहायक, बसंत पहले ही ‘फागुन में औगुन’ का रस घोल चुका है। फिकरे, फब्तियां बेइख्तियार फिसल रही हैं। मन पर जोर नहीं, वह बरजोरी पर उतारू है। फागुन में कोई किसी को न रोके, कोई किसी को न टोके। हम शहरी हों या गंवई-हर रोज, हर माह मर्यादाओं, संस्कारों, नियमों, विधानों, वर्जनाओं में जकड़े हैं। लेकिन यह वसंत ऋतु, यह फागुन का महीना, यह पर्व है वर्जनाओं से मुक्ति का, विकारों के स्खलन का, नव सृजन का। आज कोई भी रोके-रुकेगा नहीं। देखो, वह नव सिन्दूरी रतनार अपने बलम जी से कैसे भिड़ी है, जिद पर अड़ी है-
सजन चाहे झगड़ा करो…
लहुरी ननदिया के मुख पे मलूंगी
देवरा से खेलूंगी जरूर
सजन चाहे झगड़ा करो…
होरी पे कोई हार नहीं मानता। सो, तैयारियां अभी से चल रही हैं-होरी से कोई रार नहीं मानता। सो, बावरियां भी मचल रही हैं। यह प्रेम पगा पर्व है। कान्हा बने प्रेमी और राधा बनी प्रेयसी एक दूसरे को रंगने की तैयारी में हैं। बड़ी मुश्किल है। प्रेमी जुगत भिड़ा रहे हैं कि अपनी राधा को कौन रंग रंगूं जो पक्का चढ़े। विचार हो रहा है-टेसू रंग, गदराई देह पर पहले ही चढ़ा है। गुलाल मल दूं पर गुदारे गाल खुद ही गुलाल है। गाढ़ा लाल रंग चढ़ेगा पर अधरों के आगे फीका रहेगा। श्याम रंग में रंग दूं लेकिन कजरारे नैनों के आगे यह झूठा पड़ेगा। फिर क्या करूं ! जब कुछ न सूझा तो शरारत सूझी और फिर वही हुआ जिसके लिए फागुन में औगुन कुख्यात है।
लेत न छिन विश्राम अधर दोउ,पियत अधर रस रंग
चूम चूम मुख करि गुलाल सौं, केसर मींजत अंग
अब राधा रानी किससे शिकायत करें किससे कान्हा की ढिठाई बताएं श्याम ने तो लूट लिया। कौन सुनेगा। फागुन में तो सभी बौराए हैं। जो हुआ पहले से पता था। होली अधीरता का पर्व है। यहां धीरता बेइमानी घोषित है। किस-किस की कहें। होली की हरारत से सभी हलकान हैं। मादक तरंग में घिरे हैं। नई-नई शादी हुई है तो समझो होली में एक और रंग घुला। साली-सलहजों संग होली। जीजा-साढ़ू संग रार-तकरार। साली-सलहजों संग तो रिश्ता ही मनो-विनोद का है। पत्नी की पहली होली मायके में और सजन जी खिंचे चले आएंगे। पत्नी से पहले साली की पाती मिलती है, ‘जीजा जी, होली पे न आए तो हरजाना लूंगी।’ हरजाना देने में हर्ज नहीं पर ससुराल नाम में ही मादकता है। साली में सुरूर है। स (सुरा) ल कहो या ससु (राल)। जीजा जी टपकने को तैयार हैं और गुटकने को भी। होरी में हारे तो भी जीत। होली रास का पर्व है-उल्लास का, हास का-परिहास का, राग का-रंग का और रंगों के रूप अनेक हैं। होली के रंग रिश्तों में ही नहीं, प्रकृति में भी घुले हैं। होली के विविध रंग, विविध रूप प्रकृति से धरा तक, धरा के विभिन्न अंचलों में, विभिन्न भागों में, विभिन्न बोलियों में अलग-अलग बिखरे हैं। एक रंग है तो सिर्फ इसके नैसर्गिक उल्लास में, संदेश में।
उत्तर प्रदेश को ही लें। यहां विभिन्न अंचलों में होली अलग-अलग रंगों में पगी है। अवध में होली मर्यादित है। यह राम की भूमि है। राम यूं तो मानव मात्र के नायक हैं, जननायक हैं पर अवध की बात और है, ‘राजा राम अवध रजधानी’ यह रिश्ता भी है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं इसलिए उनकी रजधानी की परम्पराएं भी मर्यादित हैं। अवध के फाग में मस्ती है पर मर्यादा भी है। अवध में होली का केन्द्र है लखनऊ। लखनऊ ने नवाबियत का दौर भी देखा है, इसने भी होली के रंगों में इजाफा किया। जाने-आलम रंगीले पिया नवाब वाजिद अली शाह की होली बहुत गुजरे जमाने की बात नहीं। हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकारों और उर्दू अदीबों की बस्ती चौक की होली में अलग ही मस्ती है। साहित्यकार अमृत लाल नागर की भंग की तरंग में डूबी होली की परम्परा रवायती जोशो-खरोश के साथ आज भी जारी है। इस होली की खासियत यह है कि होलिका दहन के रोज सवेरे से ही भांग की ठंडाई घुटने लगती है। केसर, मुनक्का, चिरौंजी की ठंडाई। अगले रोज कोनेश्वर मंदिर के स्थान से होली का जुलूस निकलता है जो कमला नेहरू मार्ग, अकबरी गेट होते हुए चौक चौराहे पर समाप्त होता है। यह मुस्लिम बहुल बस्ती है। खासियत यह है कि जुलूस को जगह-जगह रोककर मुस्लिम तबके के लोग भी हुरिहारों का शिद्दत से एहतिराम करते हैं। सारे तबके, सारे फिरके रंगों में रंगे जाते हैं। जाने आलम के समय यहां रक्काशाओं की महफिलें भी सजती थीं। यह महफिलें अब कवि सम्मेलनों और मुशायरों की महफिलों में तब्दील हो गई हैं। लखनऊ से लगे कानपुर में रंगोत्सव आठ दिन चलता है।
पूरब में होली की हलचल अलग सी है। यहां होली क्या हुड़दंग है। पुरबिया होली का केन्द्र है बनारस। और बनारसी होली का जमघट गंगातट पर अस्सी घाट पर लगता है। होली को जिसने भी ‘हुड़दंग’ कहा होगा, बनारसी होली को देखकर ही कहा होगा। होली के दिन अस्सी घाट पर होने वाला कवि सम्मेलन यहां का मुख्य आकर्षण है। बनारस (काशी) पंडितों-पण्डों की नगरी है। यहां काव्य के माध्यम से गीतों के संग गालियां दागने की पुरानी परंपरा है। पर यह परंपरा अब गालियों तक ही सीमित होती जा रही है-ऐसा आरोप है। साथ ही यह भी सचाई है कि इस परंपरा को लोगों ने हुड़दंगी होली के एक पहलू के रूप में स्वीकार कर लिया है। तभी तो इस आयोजन में रैली बराबर श्रोता स्वत:स्फूर्त खिंचे चले आते हैं। हां, पर इतनी एहतियात बरतनी ही पड़ेगी कि ‘सभ्य-सुसंस्कृत’ यहां न पहुंचें। यह कवि सम्मेलन गाली-गुफ्तारी और यहां तक कि एक दूसरे की महतारी को भी समर्पित रहता है। सियासी तंज और दिली रंज इस कवि सम्मेलन में फूटते हैं। अब आपको ले चलते हैं ब्रज की होली में। होली की इस टोली में जो शामिल हो ले, समझो तर गया। ब्रज की होली ऐसी-वैसी होली नहीं। ब्रज को होली पे और होली को ब्रज पे नाज है। दोनों का रिश्ता पर्याय का है, एक दूसरे के पूरक का है। कहा जाता है- ब्रज ते शोभा फाग की, ब्रज की शोभा फाग
एक किस्सा सुनो-
एक बार एक ब्रजवासी ने कान्हा से पूछ लिया, ‘सुना है आपके बैकुण्ठ में सब कुछ है?’
‘हां, है तो!’
‘तो वहां होली भी खूब होती होगी?’
कान्हा इस सवाल पर अचकचा गए। सोचने लगे, बैकुण्ठ में होली कहां ! कान्हा को दुविधा में देख ब्रजवासी ने ताना कसा-
स्वर्ग बैकुण्ठ में होरी जो नांहि तो कोरी कहां लै करै ठकुराई
यह उक्ति पूरे ब्रज में प्रसिद्ध है। होली का ब्रज से रिश्ता कान्हा ने जोड़ा। ब्रज में होली का पर्व प्रेम में रंगा, प्रीति में पगा है। यहां होली नायक-नायिका, प्रेमी-प्रेयसी की मधुर ठिठोली है। नायक हैं कान्हा और नायिका हैं राधा। कान्हां संग ग्वाल और राधा संग गोपियां। सब होली की ठिठोली को आतुर, होली ब्रज की सर्वप्रमुख पहचान है और इसीलिए ब्रज की होली विश्व प्रसिद्ध है। कान्हां बैकुण्ठ से पृथ्वी को प्रेम और भक्ति के रस-रंग में भिगोने आए थे। उन्होंने ज्ञान पर प्रीति को प्राथमिकता दी। इसलिए ब्रज की होली में अध्यात्म के स्वर सर्वाधिक मुखरित हैं। यहां होली सिर्फ पर्व नहीं, अनुष्ठान भी है। ब्रज की होली में कोमलता है, माधुर्य है और उग्रता भी-वैसे ही जैसे प्रेम में। ब्रज के रास और रसिया जग-प्रसिद्ध हैं। कृष्ण गोपिकाओं के साथ रास रचाते थे। कान्हा और राधारानी में एक-दूसरे को होली में प्रीति के रंगों में सराबोर करने की होड़ रहती थी, जिसे यहां के रसिया फाग गीतों में याद करते हैं-
नंद कुंवर खेलत राधा संग जमुना-पुलिन सरस रंग होरी
हाथन लिए कनक पिचकारी छरके ब्रज की नवल किशोरी
राधारानी कान्हां को छेड़ती हैं, घेरती हैं, कभी लिपटती हैं, कभी खुद को छुटाती हैं और कभी भर पिचकारी कान्हां को भिगोती हैं। पर कान्हां का, नंद के कुंवर का, गिरिधारी का अंदाज ही निराला है। राधा को जब इसका अहसास होता है तो सखियों से शिकायत करती हैं-
चला के मुझपे रसीली नजर से पिचकारी
लगे जो छूने मेरा अंग-अंग गिरिधारी
मसक गई मोरी अंगिया सरक गई सारी
ब्रज की होली में अगर बरसाने की लठमार होली की चर्चा न हो तो जिक्र अधूरा रह जाता है। लठमार होली नंदकुंवर कान्हा के नंद गांव और वृषभानुसुता राधा के गांव बरसाने के बीच के रिश्ते की मधुर मार का प्रतीक है। यहां प्रेम की अतिरेकता और उग्रता है। पांच हजार साल से भी अधिक वर्षों से चली आ रही परंपरा के निर्वहन में आज भी कहीं सुस्ती नहीं। बरसाने में लठमार होली का आयोजन फागुन की शुक्लाष्टमी के राज होता है। आयोजन के एक दिन पूर्व नंदगांव से एक पुरोहित बरसाने की गोपियों को कान्हा की ओर से होली खेलने का निमंत्रण देने पहुंचता है। अगले रोज ग्वालों की टोली संग कान्हा होली खेलने बरसाने पहुंचते हैं। बरसाने के निकट पीली पोखर पे इनका स्वागत होता है। फिर ब्रह्मगिरि पर्वत के शिखर पर स्थित मंदिर पहुंचते हैं। वहां से हुरिहार रसिया गाते ‘रंगीली गली’ से गुजरते हैं। टेर गूंजती है- रसिया आयौ तेरे द्वार, खबर दीजौ उधर, बरसाने की गोपियां हुरिहारों की खबर लेना शुरू करती हैं। नंदगांव के हुरिहारों पर बरसाने की घूंघट में सजी गोपिकाएं लट्ठ बरसाती हैं। हुरिहार इन्हें अपनी बलिष्ठ भुजाओं, कांधों और जांघों पर झेलते हैं, पर पीठ दिखाने को तैयार नहीं होते। ग्रंथों-गाथाओं में वर्णन है, बरसाने की गोपियों की लठमार होली देखने आज भी स्वयं बैकुण्ठपति और देवतागण आते हैं-
ऐसे रस बरस्यो बरसाने, जो बैकुण्ठऊ में नांहि
सुर तेतीसन की मति बौरी, तजि के चले सरग की पौरी
देवों की तो नहीं पता पर बरसाने की यह अनूठी होली देखने के लिए देश-विदेश से सैलानी आज भी यहां पहुंचते हैं। बरसाने ही नहीं नंदगांव, वृंदावन, रावल, गोवर्धन, बल्देव, जाव, बठैन और महावन में भी पर्यटक पहुंचते हैं।
…बखान कहां तक करें। होली के रंग, सबके अपने-अपने हैं। होली के रोज हर कोई एक-दूसरे को अपने रंग में रंगना चाहता है। आप भी चाहते होंगे। तो तय कर लें निशाना और उठा लें पिचकारी। जमाने के रंज को रंग में भिगोकर अपनी-अपनी टोली में हो लें, वरना हाथ मलते रह जाएंगे और कहेंगे-
गयौ मस्त महीना फागुन कौ अब जीवै सो खेलै होरी-फाग…
गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010
उठाया कहां से जाए… की समस्या!
प्रेस कांफ्रेंस से निकलते हुए मेरे एक वरिष्ठ साथी रिपोर्टर ने अपना चिर-परिचित सवाल उछाला, ‘यार उठाया कहां से जाए …और सभी एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे ?’
यह एक ऐसी व्यावहारिक समस्या है जिससे प्रिंट मीडिया का अमूमन हर संवाददाता रोज दो-चार होता है। ‘उठाया कहां से जाए’ यानी रिपोर्ट का एंगल क्या होगा। जूनियर ही नहीं, बहुत से वरिष्ठ साथी भी इस सवाल से परेशान रहते हैं।
दरअसल, यह एंगल ही होता है जो किसी समाचार या सूचना को फ्रंट पेज का आयटम या फिर अंदर का डीसी/सिंगल डब्बा बना देता है। मोटे तौर पर कुछ बातें जेहन में रखें तो तथ्य और सामग्री समान होने के बावजूद कोई भी रिपोर्ट अन्य रिपोर्टरों की उसी विषय पर लिखी रिपोर्ट से बेहतर और प्रभावपूर्ण बन सकती है- 1-सूचना में नया क्या है : रिपोर्टर को सूचना मिलने के साथ ही सबसे पहले इस बिन्दु पर विचार करना चाहिए कि इसमें नया क्या है। इस सवाल का जवाब तलाशने का सिर्फ एक ही तरीका है और वह यह कि रिपोर्टर को मालूम हो कि पुराना क्या था। इसलिए रिपोर्टर को संबंधित विषय के बारे में पढ़ते रहना बहुत जरूरी है। बेहतर हो कि वह फील्ड पर जाने से पहले अपना होमवर्क पूरा करके जाए।
2-किस पाठक वर्ग के लिए : रिपोर्ट का एंगल तय करने के लिए यह जानना जरूरी है कि जो रिपोर्ट लिखी जानी है वह किस पाठक वर्ग के लिए है। उस पाठक वर्ग की संख्या कितनी है और उसके बीच में अखबार का प्रसार कितना है। उसकी जागरूकता का स्तर कितना है और उससे संवाद किन शब्दों में स्थापित किया जा सकता है।
3-सरोकार और उत्तरदायित्व : पत्रकारिता सरोकारों का पेशा है इसलिए रिपोर्ट कैसी भी हो उसे पाठक को परोसने से पहले यह जरूर ध्यान देना चाहिए कि उससे पाठक वर्ग के सरोकारों को कितना पुष्ट किया जा रहा है। उपलब्ध जानकारी में से क्या, कितना और किन शब्दों में पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करना है इसका पहला उत्तरदायित्व रिपोर्टर पर होता है। संवेदनशील मसलों पर रिपोर्ट लिखते समय इसका ध्यान विशेष रूप से रखना चाहिए।
4-दृष्टि : कोई भी रिपोर्ट अपने विषय की जानकारी देने के साथ ही रिपोर्टर का व्यक्तित्व भी पाठक के सामने रखती है। रिपोर्ट में जीवंतता का संचार और गति-निर्माण रिपोर्टर की दृष्टि से होता है। यह वह सर्वप्रमुख बिन्दु है जो किसी रिपोर्ट को अन्यों से अलग करती है। कोई भी रिपोर्ट तथ्यों के आधार पर तो तटस्थ हो सकती है लेकिन भावों के आधार पर उसमें तटस्थता रखना न तो संभव है और न जरूरी। कहा भी जाता है, ‘सुन्दरता दृश्य में नहीं दृष्टि में होती है।’ यह सिद्धांत किसी रिपोर्ट को लिखते समय भी लागू होता है। दृष्टि जितनी सकारात्मक और सुन्दर होगी, रिपोर्ट भी उतनी ही सुस्पष्ट और सुरुचिपूर्ण होगी। अगर इन बिन्दुओं का विचार रिपोर्टर अपनी दैनिक चर्या का हिस्सा बना लेंगे तो उन्हें कभी साथी रिपोर्टरों से यह नहीं पूछना पड़ेगा-यार, उठाया कहां से जाए !
अजय शुक्ला
यह एक ऐसी व्यावहारिक समस्या है जिससे प्रिंट मीडिया का अमूमन हर संवाददाता रोज दो-चार होता है। ‘उठाया कहां से जाए’ यानी रिपोर्ट का एंगल क्या होगा। जूनियर ही नहीं, बहुत से वरिष्ठ साथी भी इस सवाल से परेशान रहते हैं।
दरअसल, यह एंगल ही होता है जो किसी समाचार या सूचना को फ्रंट पेज का आयटम या फिर अंदर का डीसी/सिंगल डब्बा बना देता है। मोटे तौर पर कुछ बातें जेहन में रखें तो तथ्य और सामग्री समान होने के बावजूद कोई भी रिपोर्ट अन्य रिपोर्टरों की उसी विषय पर लिखी रिपोर्ट से बेहतर और प्रभावपूर्ण बन सकती है- 1-सूचना में नया क्या है : रिपोर्टर को सूचना मिलने के साथ ही सबसे पहले इस बिन्दु पर विचार करना चाहिए कि इसमें नया क्या है। इस सवाल का जवाब तलाशने का सिर्फ एक ही तरीका है और वह यह कि रिपोर्टर को मालूम हो कि पुराना क्या था। इसलिए रिपोर्टर को संबंधित विषय के बारे में पढ़ते रहना बहुत जरूरी है। बेहतर हो कि वह फील्ड पर जाने से पहले अपना होमवर्क पूरा करके जाए।
2-किस पाठक वर्ग के लिए : रिपोर्ट का एंगल तय करने के लिए यह जानना जरूरी है कि जो रिपोर्ट लिखी जानी है वह किस पाठक वर्ग के लिए है। उस पाठक वर्ग की संख्या कितनी है और उसके बीच में अखबार का प्रसार कितना है। उसकी जागरूकता का स्तर कितना है और उससे संवाद किन शब्दों में स्थापित किया जा सकता है।
3-सरोकार और उत्तरदायित्व : पत्रकारिता सरोकारों का पेशा है इसलिए रिपोर्ट कैसी भी हो उसे पाठक को परोसने से पहले यह जरूर ध्यान देना चाहिए कि उससे पाठक वर्ग के सरोकारों को कितना पुष्ट किया जा रहा है। उपलब्ध जानकारी में से क्या, कितना और किन शब्दों में पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करना है इसका पहला उत्तरदायित्व रिपोर्टर पर होता है। संवेदनशील मसलों पर रिपोर्ट लिखते समय इसका ध्यान विशेष रूप से रखना चाहिए।
4-दृष्टि : कोई भी रिपोर्ट अपने विषय की जानकारी देने के साथ ही रिपोर्टर का व्यक्तित्व भी पाठक के सामने रखती है। रिपोर्ट में जीवंतता का संचार और गति-निर्माण रिपोर्टर की दृष्टि से होता है। यह वह सर्वप्रमुख बिन्दु है जो किसी रिपोर्ट को अन्यों से अलग करती है। कोई भी रिपोर्ट तथ्यों के आधार पर तो तटस्थ हो सकती है लेकिन भावों के आधार पर उसमें तटस्थता रखना न तो संभव है और न जरूरी। कहा भी जाता है, ‘सुन्दरता दृश्य में नहीं दृष्टि में होती है।’ यह सिद्धांत किसी रिपोर्ट को लिखते समय भी लागू होता है। दृष्टि जितनी सकारात्मक और सुन्दर होगी, रिपोर्ट भी उतनी ही सुस्पष्ट और सुरुचिपूर्ण होगी। अगर इन बिन्दुओं का विचार रिपोर्टर अपनी दैनिक चर्या का हिस्सा बना लेंगे तो उन्हें कभी साथी रिपोर्टरों से यह नहीं पूछना पड़ेगा-यार, उठाया कहां से जाए !
अजय शुक्ला
सोमवार, 18 जनवरी 2010
बस यूं ही...
वो जितनी बार इसे खाक में मिलायेंगे।
हम नया आशियां बनायेंगे।।
वो छिपाते हैं मुंह अंधेरे में।
हम रोशनी के लिए दिल जलायेंगे।।
हम नया आशियां बनायेंगे।।
वो छिपाते हैं मुंह अंधेरे में।
हम रोशनी के लिए दिल जलायेंगे।।
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