अजय शुक्ला
मैं टीवी से चिपका देख रहा था, महिला आरक्षण पर हंगामें के बीच राज्यसभा चौथी बार स्थगित। इसी बीच श्रीमती जी आईं और समाचार में मेरी तल्लीनता देख वाणी में विनम्र मनुहार भर बोलीं-आटा गूंथ दिया है, सब्जी तैयार है, जब खाना हो बता देना गरम-गरम रोटी सेंक दूंगी।
सामान्य तौर पर इस तरह की बातें रात में दो बजे के बाद, जब आफिस से आता हूं, तब सुनने को मिलती हैं, उनींदी आंखों और जम्हाई भरे मुंह से लड़खड़ाते निकलते शब्दों में। मैं कई बार कहता कि शाम को ही बनाकर रख दिया करो, मैं रात में लौटूंगा तो खा लूंगा। पर उनका जवाब होता टिफिन ले जाने लगो तो ये नौबत ही न आए। न वो मेरी सुनतीं, न मैं टिफिन ले जाने की उनकी नसीहत। बात यहीं खत्म हो जाती। वह रात दो-तीन बजे ताजी रोटी सेंकती ही हैं। मैं देर सुबह उठता हूं, तब तक घर में श्रीमती जी के सारे दैनिक काम यानी-बिट्टू के लिए नाश्ता बनाना, टिफिन तैयार करना और उसे स्कूल छोड़कर आना। इसके बाद घर की समग्र साफ-सफाई, चौका-बासन का शेष काम। तब तक मैं भी सोकर उठ जाता हूं और ब्रश करने के बाद एक कप चाय के साथ अखबारों का बंडल उलटना-पलटना शुरू हो जाता है। इस समय तक दोपहर घनी होने लगती है। श्रीमती जी पहले तो पूछती थीं लेकिन अब जान गई हैं, इनका लंच देर से होगा। सो, अपना परोस-खा लेती हैं। साप्ताहिक अवकाश के दिन ही सहभोज संभव हो पाता है, अगर सबकुछ नियोजित रहे, तो। कभी-कभी नियोजन बिगड़ता है तो मुंह-फुलव्वल होती है, मान-मनुहार चलता है, कभी-कभी नहीं भी चलता है।
इस लिहाज से आज ( अंतरराष्टीय महिला दिवस-आठ मार्च,2010) दिन में रोज रात वाला आग्रह सुन चौंका। पूछा 'क्यों, अभी तक तुमने भी खाना नहीं खाया क्या ?'
श्रीमती जी ने कल शाम बताया था कि सुबह शीतलाष्टमी की पूजा होगी। मैंने सोचा-व्रत भी हो शायद ! इसीलिए पुष्टि के लिए पूछ लिया।
बोलीं, 'सुबह पूजा कर बसेउढ़ा खा लिया। आपके लिए रोटी सेंक देती हूं।'
बसेउढ़ा यानी वह बासी भोजन जो शीतला माता की पूजा-प्रसाद के लिए एक दिन पहले ही तैयार कर लिया जाता है। मुझे श्रीमती जी ने ही बताया कि शीतला माता को शीतल चीजें पसंद हैं इसलिए गरम (ताजा) भोजन का प्रसाद अर्पित नहीं किया जाता। अब प्रसाद है तो ग्रहण्ा भी करेंगे, फेंकेंगे थोड़े न।
ये बसेउढ़ा तो प्रसाद है। पर मैं सोच रहा हूं- प्रसाद, परम्परा, प्रतीक कैसे बनते हैं। सोचते-सोचते बचपन की कुछ स्मृतियों में चला गया। बासी खाने से मैं शुरू से ही मुंह बिचकाता रहा पर अम्मा का रोज नाश्ता बासी खाने से ही होता था। गांव में मेरे घर के पिछवाड़े जो दलितों की बस्ती ( गांव भर में उसे चमरही कहा जाता था) है उसमें पहला मकान हमारे बंटाईदार (ठेके पर खेती करने वाले मजदूर) का था। वहां से रोज सुबह जो आवाजें छनकर हमारे कानों तक पहुंचतीं उनमें एक 'बासी' पुराण भी था। दरअसल, इस तबके में रोज सुबह का नाश्ता या ब्रेकफास्ट बासी भोजन का ही होता है। इसलिए सुबह खेत पर जाने से पहले स्त्री-पुरुष, बच्चे सब बासी खाकर ही जाते। खाना दिन में एक ही वक्त बनता। अक्सर छुटकी चाची (बंटाईदार की पत्नी) घर आतीं, अम्मा कुछ खाने को देतीं तो बतातीं-'दीदी पूरा हफ्ता हुई गवा, आज ताजी रोटी खाए का मिली है।'
अम्मा खुद को भाग्यशाली मानतीं कि उन्हें तो रोजाना चार में दो ही रोटी बासी खानी होतीं। पर इन परिवारों में मेहनत-मजूरी बराबरी पर करने वाली महिलाएं भी शाम को पति-बच्चों के लिए भोजन भले ताजा बना लें पर बासी बचा है (जो रोज बचता भी था) तो शाम को भी उसका अंतिम संस्कार इन्हीं महिलाओं के पेट में ही होगा। गांवों में स्थिति अब पहले से कुछ सुधरी है, मगर पूरी तरह नहीं। अम्मा भी अब बासी तभी खाती हैं जब जरूरत से काफी ज्यादा बच जाए। शहर में सुविधा हो गई-एक दो रोटी बच ही जाये तो गाय माता को खिलाकर पुण्य कमा लो या गली के कुत्तों के आगे डालकर भैरव बाबा को प्रसन्न कर लो।...पर पूरी तस्वीर अब भी कहां बदली है और कितने घरों में बदली है ? जहां काफी कुछ बदल गई है, वहां भी बसेउढ़ा का प्रसाद तो है ही। शीतला माता को बासी भोजन का प्रसाद भावना और आस्था से जुड़ा है, सो उन्हें अर्पित करो पर क्यों नहीं यह बसेउढ़ा का प्रसाद पुरुष भी बंटाकर खाते ? (हालांकि निजी तौर पर मेरा मानना है कि शीतला माता को भी यदि बासी भोजन न मिले तो वे नाराज न होंगी-भावना रखने के लिए शीतल चीजें ही तैयार कर ली जाएं जैसे फल आदि - लेकिन माता हैं इसलिए शायद उन्ाके हिस्से भी किसी पुरुष विद्वान ने बासी ही लिख दिया होगा। मैंने किसी पुरुष देवता को बासी भोजन का प्रसाद अर्पित करते अब तक तो नहीं सुना )
यह सोचते-सोचते मैं थकने लगा था । सो, आवाज लगाई, ताजी रोटी सेंकवाई, खाई और ... फिर जाने क्या हुई कि अकस्मात् होंठ हिले, स्वत: शब्द फूटे, 'आज से टिफिन भी इसी समय तैयार कर दिया करो।'
श्रीमती जी को अकस्मात् भरोसा नहीं हुआ। उन्होंने दोबारा पुष्टि के लिए विस्मय से पूछा- 'क्या कहा, टिफिन तैयार कर दूं ?'
इस बार मैंने संकेत में सिर्फ सिर हिलाया और वह खुशी-खुशी किचेन में फिर व्यस्त हो गईं। कुछ इतनी तेजी में कि मेरा इरादा बदलने से पहले टिफिन तैयार हो जाए।
जय हो शीतला मइया की! महिला दिवस जिन्दाबाद !
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हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
जवाब देंहटाएंकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
Bahut achha sansmaran hai..
जवाब देंहटाएंMaza aa gaya padhke!
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुभकामनाएं। आइये, और दो कदम साथ चलें।
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